Essay on swami dayanand sarswati स्वामी दयानंद सरस्वती पर निबंध

जब जब हमारे देश में, हमारे समाज में अनेक बुराइयों और कुरीतियों का जन्म हुआ है, ऐसे में बहुत से अंधविश्वास को भी प्रबल होते हुए देखा है। उस समय में धर्म के बहुत बड़े बड़े ठेकेदार अपने अपने पाखंडों को बहुत अधिक महत्व देने लगते हैं। इन सब के बढ़ते हुए प्रभाव में से कोई ना कोई ऐसा महान पुरुष जन्म लेता है जो समाज के हर व्यक्ति को एक नया और सच्चा रास्ता दिखा देता है।

ऐसे ही महापुरुषों में महर्षि दयानंद सरस्वती का नाम आता है। उन्होंने हमारे समाज मे व्याप्त हो रही बहुत सी कुरीतियों को दूर करने का भरपूर प्रयास किया था। भारत में धर्म और समाज में जब जब विकृतियों ने जन्म लिया है। तब उन्होंने जनजीवन के मार्ग पर सभी लोगों को सही राह दिखाई है। ऐसी ही विभूतियों में स्वामी दयानंद सरस्वती का नाम सबसे ऊपर आता है। उन्होंने समाज में व्याप्त अज्ञान रूपी अंधकार को दूर किया आज हम आपको इस लेख के माध्यम से दयानंद सरस्वती के जीवन के बारे में महत्वपूर्ण बातों की जानकारी देंगे। इसके अलावा इस लेख में हम स्वामी दयानंद सरस्वती के ऊपर निबंध लिखने जा रहे हैं…

Essay on swami dayanand sarswati स्वामी दयानंद सरस्वती पर निबंध

प्रस्तावना

हमारे देश के महान पुरुषों में स्वामी दयानंद सरस्वती का जन्म उस समय में हुआ था। जब हमारे देश चारों तरफ संकट और भयंकर आपदाओं से घिरा हुआ था। जब हमारे देश में ब्रिटिश सरकार का कब्जा हो रखा था। उनके अमानवीयता के बर्ताव के कारण पूरा वातावरण खराब हो रखा था। स्वामी दयानंद सरस्वती जी ने मानवता विरोधी गतिविधियों का बहुत गंभीरता पूर्वक अध्ययन करके उन सभी बुराइयों को जड़ से उखाड़ फेंकने का एक निश्चित दृढ़ संकल्प लिया।

देश में राजनीतिक चेतना के साथ-साथ सांस्कृतिक धार्मिक और हिंदी के उत्थान में भी सरस्वती का नाम विशेष रूप से लिया जाता है क्योंकि इनकी इन सभी योगदान में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। दयानंद सरस्वती आर्य संस्कृति के समर्थक और हमारे समाज के सुधारक भी माने जाते हैं। अतीत के महानायक को ने आर्य संस्कृति की रक्षा के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी थी।

महर्षि दयानंद सरस्वती का जन्म व प्रारंभिक शिक्षा

दयानंद सरस्वती का जन्म 12 फरवरी 1824 ई. में गुजरात के मोरबी राज्य के संग आरा गांव में हुआ था। इनके पिता का नाम कर्षण जी, जो कि इनके गांव के सबसे बड़े जमींदार हुआ करते थे। इनका परिवार बहुत ही सुखी और संपन्न परिवार था। सनातन धर्म के अनुसार 5 वर्ष की आयु में दयानंद सरस्वती को यह यगोपवित संस्कार और विद्यारंभ का संस्कार किया गया। इनकी पढ़ाई संस्कृत शिक्षा से शुरू हुई थी। इनको शुरुआत में अमरकोश जैसे संस्कृत साहित्य के साथ-साथ यजुर्वेद की बहुत प्रमुख रचनाओं का ज्ञान कंठस्थ हो गया था। दयानंद सरस्वती की विलक्षण तेज बुद्धि होने की वजह से इन को संस्कृत में सभी चीजें बहुत जल्दी से हो जाती थी।

धर्म का प्रचार

दयानंद सरस्वती ने अपने गुरु से शिक्षा प्राप्त करने के बाद में वैदिक धर्म के प्रचार में लग गए थे, लेकिन उस समय मे उनके पास में ज्यादा ना तो पैसा था, ना खुद मजबूत, ना उनके पास में कोई संस्था थी, इनके पास था तो केवल अपना खुद का ज्ञान, मस्तिष्क की शक्ति।  उस समय में हरिद्वार में कुंभ का मेला लग रहा था, उन्होंने शहर के ऊपर पाखंड खंडनी झंडा पहनाकर सभी लोगों के सामने धर्म के गहरे रहस्य को प्रस्तुत किया था।

कुंभ में उनकी बहुत सफलता हुई। धीरे-धीरे इस तरह से उनके अनुयायियों की संख्या बढ़ती चली गई। दयानंद सरस्वती शास्त्रों के ज्ञाता थे,दूसरों के साथ लंबी चर्चा करने में वह बहुत आनंद महसूस करते थे। उन दिनों शास्त्रार्थ की बात करना बहुत आम बात हुआ करती थी। विरोधी विचारों में विश्वास रखने वाले विद्वान आपस में ही शास्त्रार्थ की बात किया करते थे। इस तरह से दयानंद सरस्वती जी ने अनेक शास्त्रों में विजय प्राप्त करके, पूरे देश में धर्म का प्रचार किया था।

आर्य समाज की स्थापना

दयानंद सरस्वती जी के द्वारा,उनके कठिन प्रयासों से सभी लोगों को, विधर्मीयो के द्वारा दिए गए अधूरे ज्ञान से मुक्ति मिल गई थी। दयानंद जी ने अपने विश्वास से सभी बुद्धिजीवियों को हमेशा प्रेरित किया है। उनके द्वारा दिए गए उपदेश की एक अलग ही विशेषता हुआ करती थी। उनकी हमेशा शास्त्रार्थ को लेकर बड़े-बड़े विद्वानों से वाद-विवाद चलते रहते थे।

हमारे समाज में उसे पहले भी बहुत ही धार्मिक प्रचारक और समाज सुधारक मौजूद हुआ करते थे, धीरे-धीरे दयानंद सरस्वती आगे बढ़ते ही चले गए और उन्होंने आर्य समाज को शुरू करने के लिए विद्वानों और बाद में अनपढ़ों को भी स्वीकार करना शुरू कर लिया था। सन 1875 में दयानंद सरस्वती जी के द्वारा मुंबई में आर्य समाज की स्थापना की गई थी। दयानंद सरस्वती का शिक्षा के क्षेत्र में प्रचार प्रसार बहुत महत्वपूर्ण रहा था। उन्होंने पूरे भारत देश में डीएवी हाई स्कूल भी इन्हीं के द्वारा, इन्हीं के प्रयासों से बनाए गए थे।

1857 की क्रांति में योगदान

दयानंद सरस्वती जी को अपना घर छोड़ने के बाद में उन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ बोलना शुरू कर दिया था। पूरे देश का भ्रमण करने के बाद उन्होंने देखा कि लोगों के भीतर अंग्रेजो के खिलाफ में बहुत आक्रोश भरा हुआ है। इसके लिए बस सभी भारतीयों को एक मार्गदर्शक की जरूरत है। इसके लिए दयानंद सरस्वती ने सभी भारतीयों को धीरे धीरे एकत्र कर उनसे बात करना शुरू किया।

स्वामी दयानंद सरस्वती जी की बातों से तात्या टोपे, नानासाहेब पेशवा, हाजी मुल्लाह, बाला साहब जैसे बड़ी-बड़ी क्रांतिकारी भी प्रभावित हुए। इस तरह से सभी लोगों को एकजुट होकर जागरूक किया और धीरे-धीरे उन सभी लोगों को मार्गदर्शक के रुप में भी आगे बढ़ाया। सभी लोग देश की आजादी चाहते थे, इसीलिए सब के साथ मिलकर इन्होंने 1857 की क्रांति का बीड़ा उठाया हालांकि यह क्रांति असफल रही।

लेकिन इस क्रांति से दयानंद सरस्वती बिल्कुल भी निराश नहीं हुए। उन्होंने सभी से कहा कि देश की इतने वर्षो की गुलामी एक विद्रोह से खत्म नहीं की जा सकती है, इसीलिए और प्रयास करने होंगे। दयानंद सरस्वती जी का मानना था कि आने वाले समय में कभी तो देश को आजादी मिल ही जाएगी।

Conclusion

आज आपको इस पोस्ट के द्वारा महर्षि दयानंद सरस्वती जी के ऊपर निबंध के बारे में जानकारी दी है। उम्मीद है आपको यह जानकारी पसंद आई होगी। इसी तरह की अन्य जानकारी के लिए आप हमारी वेबसाइट से जुड़े हैं सकते हैं।

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